अहिंसा क्या है
अहिंसा क्या है
अहिंसा क्या है ?
स्तंभन्यूज डेस्क : अहिंसा के मूल में जीवों को मारने अथवा न मारने की की भावना अधिक दिखाई देती है और दिखता है उत्तरोत्तर इसके आयाम का विस्तार, अतिवादी प्रयोग।
प्रश्न उठता है कि अहिंसा का औचित्य क्या है? जीवों को क्यों न मारा जाय? इस प्रश्न पर भी मतभेद है। कोई कहता है- हर जीव में भगवान हैं। फिर तो कठिन हो जायेगा; भगवान कहाँ नहीं हैं? खायेंगे क्या? क्या दही अथवा शहद खाने में हिंसा नहीं है? करोड़ों कीटाणु एक कटोरी दही में खा जाते हैं आप! जब सबमें एक ही भगवान है, तो कोई जीव-हिंसा छोटी और कोई बड़ी क्यों? कम से कम मनुष्य-मनुष्य में तो अन्तर नहीं होना चाहिए था कि शूद्र मारने पर कुत्ता मारने के बराबर हिंसा लगती है और ब्राह्मण मारने पर शूद्र का तीन गुना! जान-बूझकर मारने पर तो कोई निस्तार है ही नहीं। विचारमात्र से किसी को पीड़ा न पहुँचाये, तो क्या अपने लड़के को पथ-भ्रष्ट होने से रोकें? चोर, डकैत, बलात्कारियों और आततायियों को भी न रोंके? इनके सामने हाथ जोड़कर धरना दें? कष्ट को दूर करने के प्रयास में दिया जानेवाला कष्ट, उपचार में होनेवाली मौतें क्या हिंसा हैं?
अहिंसा के पक्ष में दूसरा तर्क दिया जाता है कि जिन वस्तुओं को आप पैदा नहीं कर सकते, उन्हें नष्ट करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। यदि आप किसी को जीवन नहीं दे सकते, तो ले कैसे सकते हैं? अन्न और वनस्पतियों का उत्पादन आप बढ़ा सकते हैं, उनकी नस्ल बदल सकते हैं, अतः उनके प्रयोग की हिंसा क्षम्य है; किन्तु यही तर्क तो मत्स्य-पालन या कुक्कुट-पालन वाले भी देते हैं, अन्य सभी पशु-पक्षियों की नस्ल वे बढ़ा लेते हैं। खेती करनेवाले लोग जुताई-बुआई में होनेवाली हिंसा पर भले न ध्यान दें; किन्तु कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग करके दीमक इत्यादि दिखाई पड़ने और न दिखाई पड़नेवाले असंख्य कीटाणुओं के संहार का अधिकार उन्हें कहाँ से मिल जाता है? यह हिंसा तो उन्हें विचलित नहीं करती किन्तु उसी फसल की सुरक्षा के लिए उत्पाती बन्दरों अथवा चरती हुई गायों को भगाने के प्रश्न पर वे हिंसा और अहिंसा का शास्त्र लेकर बैठ जाते हैं। चेचक के कीटाणुओं और मलेरिया के उन्मूलन में असंख्य मच्छरों की हिंसा उन्हें नहीं दिखाई देती! जिन अदृश्य कीटाणुओं की हिंसा से बचने के लिए एक वर्ग नाक पर पट्टी बाँधता है (प्रयास अहिंसा का ही है), किन्तु उसी तरह के कीटाणुओं को मारने के लिए 'एण्टीबायोटिक' दवाओं को खाने में वह भी नहीं हिचकता। कोई सोचना भी नहीं चाहता कि चमड़े का उद्योग कैसे पनपाया जाता है? चमड़े की वस्तुओं का प्रयोग तो करते हैं किन्तु अहिंसा के लिए चिन्तित भी हैं! किसे मानते हैं आप अहिंसा?
फिर तो अहिंसा के समर्थन में एक ही तर्क बचता है- जो वस्तुएँ मानव-समाज के लिए उपयोगी हैं उनकी सुरक्षा अहिंसा है और जो कम उपयोगी हैं अथवा अनुपयोगी हैं उनकी उपेक्षा की जा सकती है। फिर तो उपयोगिता आधार बन गयी, अहिंसा नहीं। यदि उपयोगिता ही आधार है तो जो भिखारी, अन्धे-बहरे, विकलांग अथवा भयंकर संक्रामक रोगों के कारण जो समाज के लिए समस्या बन चुके हैं, उनका क्या किया जाय? वृद्ध माता-पिता को भी क्या अनुपयोगी समझ लिया जाय? कहते हैं- यदि डॉक्टर की भावना अच्छी है तो उसकी हिंसा भी अहिंसा है। फिर तो महत्त्व हिंसा या अहिंसा का नहीं, उसमें निहित भावना का हो गया। फिर असाध्य रोग की पीड़ा से छटपटाते मनुष्यों तथा पशुओं को आसान मौत दी जाय अथवा नहीं? परिवार नियोजन या भ्रूण-हत्या अहिंसा के अनुकूल है अथवा प्रतिकूल? फाँसी उचित है कि अनुचित?- इत्यादि प्रश्न भी विवाद के घेरे में आ जाते हैं। अतः विचारणीय है कि अहिंसा को समझने में कहीं भूल तो नहीं हो रही है? अहिंसा है क्या? यदि यही अहिंसा है, तब तो किसान इससे वंचित हो जायेंगे। गृहस्थों के लिये इनका पालन असम्भव हो जायेगा। विदेशियों की तो बात ही छोड़िये, माँस-मछली खानेवाले हिन्दुओं को भी अहिंसा धर्म से निकालना होगा। फिर तो आपका यह धर्म विश्वव्यापी नहीं हो सकेगा। अहिंसा की यह प्रचलित धारणा क्या अहिंसा है?
सच्चाई तो यह है कि इनमें से किसी भी प्रश्न का सम्बन्ध अहिंसा से है ही नहीं। इसमें दोष अहिंसा का नहीं, अहिंसा का अर्थ परिवर्तन करनेवालों का है। अहिंसा जिनकी देन है, आइये देखें हमारे वे पूर्व मनीषी अहिंसा का प्रयोग किन अर्थों में करते थे।
अहिंसा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग छान्दोग्य उपनिषद में मिलता है। इस उपनिषद के तीसरे अध्याय के चतुर्दश खण्ड में बताया गया कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'- यह सारा जगत निश्चय ही ब्रह्म है। उसे विदित करने के लिए इसी उपनिषद के पंचदश खण्ड में प्रणापान का यज्ञ और सोलहवें खण्ड में समर्पण के साथ यज्ञस्वरूप महापुरुष की उपासना करने को कहा गया और सत्रहवें खण्ड में बताया गया कि 'अथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणा:।' अर्थात् जो तप, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्यवचन हैं, वे ही यज्ञ की दक्षिणा हैं।
यज्ञ की सम्पूर्णता के पश्चात् ही दक्षिणा का विधान है। अहिंसा इस आत्मयज्ञ की दक्षिणा है अर्थात् दान, अहिंसा, सत्य इत्यादि उसके क्षेत्र की वस्तु है जिसने आत्मयज्ञ कर लिया है, आत्मा को जिसने विदित कर लिया है, 'ईशावास्यमिदं सर्वम' जिसने देखा है, वही कह सकता है। 'तत्त्वमसि', 'वसुधैव कुटुम्बकम' का उद्घोष वही कर सकता है। चराचर जगत की अन्तिम एकता- आत्मिक एकता को जिसने स्वयं देखा है, अहिंसा उसके क्षेत्र की वस्तु है। जब वही सर्वत्र है, दूसरा है ही नहीं, तो विरोध किससे? हत्या किसकी? यही बात मानसकार कहते हैं-
उमा जे राम चरन रत, बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत, केहि सन करहिं बिरोध।।
(मानस, ७/११२ ख)
वही शुद्ध अहिंसक है। किन्तु यह स्थिति मिलती है कब? जब 'बिगत काम मद क्रोध'- काम, क्रोध, मद इत्यादि विकारों को जीतकर आत्मा को विदित कर लिया, वही शुद्ध अहिंसक है। सदन कसाई मांसाहारी होकर भी अहिंसक थे और इसी प्रकार महाभारत के धर्म-व्याध भी आते हैं। जो काम-क्रोध का दास है, संसार को समेटने में लगा है, साथ ही अहिंसा की पूर्ति के लिए प्रतिदिन चींटियों को आटा खिलाता है, खटमल तक नहीं मारता, अहिंसा के लिए फलाहार करता है तब भी उसकी अहिंसा रूढ़िवादिता है, दिखावा है, दम्भ हो सकती है किन्तु आत्मज्ञान का सूचक तो कदापि नहीं है। (श्रोत- यथार्थ गीता)
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